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Up Kiran, Digital Desk: बिहार विधानसभा चुनाव की अधिसूचना का ऐलान होते ही राजनीतिक समीकरणों में हलचल तेज हो गई है। भोजपुर जिले की सात विधानसभा सीटों को लेकर इस बार सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों खेमों में मंथन गहराता जा रहा है। हालांकि गठबंधन स्तर पर सीटों का अंतिम बंटवारा अभी तय नहीं हुआ है।

बदल चुके हैं समीकरण

साल 2020 के मुकाबले इस बार चुनावी तस्वीर अलग है। पिछली बार मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी राजग (एनडीए) का हिस्सा थी और लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) अलग राह पर थी। लेकिन इस बार तस्वीर उलटी है—चिराग पासवान की पार्टी एनडीए में है जबकि मुकेश सहनी महागठबंधन में शामिल हो चुके हैं। ऐसे में भोजपुर की सात सीटों पर दोनों दल अब अपने हिस्से की दावेदारी और मजबूत आवाज़ में उठा रहे हैं।

भाजपा-जदयू के सामने पुरानी चुनौती

2020 के चुनाव में भोजपुर की सात सीटों में से सिर्फ दो—आरा सदर और बड़हरा—राजग के खाते में गई थीं, और दोनों सीटों पर जीत भाजपा को मिली थी। जदयू ने तीन सीटों (संदेश, जगदीशपुर और अगिआंव सुरक्षित) पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन कोई सफलता हाथ नहीं लगी। वहीं, भाजपा तरारी और शाहपुर में भी परचम फहराने में नाकाम रही। हालांकि, तरारी उपचुनाव में भाजपा ने जीत दर्ज कर जिलावार अपनी स्थिति को थोड़ी मजबूती दी थी।
जिले की सियासत में लोजपा (रामविलास) की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। पिछले चुनाव में राजग को नुकसान पहुंचाने वाली एलजेपी इस बार एनडीए में शामिल है और कम से कम एक सीट पर हिस्सेदारी चाहती है। हाल में ही चिराग पासवान आरा में जनसभा कर अपनी मौजूदगी का संकेत भी दे चुके हैं।

महागठबंधन में भी हलचल

पिछले चुनाव में राजद ने भोजपुर की चार सीटों से प्रत्याशी उतारे थे और तीन पर जीत दर्ज की थी। उधर, भाकपा-माले को आरा सदर, अगिआंव और तरारी सीट मिली थी, जिसमें दो पर उसने विजय हासिल की थी। बाद में तरारी उपचुनाव में यह सीट भाजपा के कब्जे में चली गई।
2025 के चुनाव में महागठबंधन की सभी पार्टियां अपने-अपने हिस्से को लेकर सक्रिय हैं। कांग्रेस अपने संगठन को मैदान में उतार चुकी है और राहुल गांधी इसी माह के अंत में आरा में मतदाता अधिकार रैली करने वाले हैं। दूसरी ओर, मुकेश सहनी की पार्टी सोन नदी के किनारे वाले इलाकों में लगातार कार्यक्रम कर रही है।

समीकरण से जटिल हुआ गणित

सीटों को लेकर जारी रस्साकशी से साफ है कि भोजपुर की राजनीति इस बार न सिर्फ जातीय और सामाजिक समीकरणों पर टिकेगी, बल्कि गठबंधन के भीतर आंतरिक सहमति भी बड़ी चुनौती होगी। भाजपा अपने परंपरागत गढ़ शाहपुर को किसी भी कीमत पर छोड़ने के पक्ष में नहीं है। वहीं महागठबंधन के सहयोगी दलों की मांगें भी अपनी-अपनी पकड़ को लेकर सख्त हो गई हैं।

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