Mumbai Press Club : "आहतिक पीड़ा" इतनी सेलेक्टिव क्यों ? जुबान जहां खुलनी चाहिए थी, कभी न खुली !

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पवन सिंह 
ये एक निंदा खत है, इसे आप चाहें तो आहत खत भी कह सकते हैं, चाहें तो सत्ता के प्रति अपनी गहन संवेदनाओं और प्रतिबद्धताओं का खुला समर्पण भी कह सकते हैं....! वैसे भी आजकल देश में निंदा मंत्रालय व आहत मंत्रालय जैसे अघोषित नये मंत्रालय खुले हुए हैं...आहत होने का पैगाम भेजा नहीं कि कार्रवाई/कार्यवाही हुई नहीं।‌ मुंबई प्रेस क्लब के इस "आहत खत" का बतौर पत्रकार/बतौर स्थाई सदस्य प्रेस क्लब आफ इंडिया, नई दिल्ली मै़ स्वागत करता हूं‌। स्वागत इसलिए, कि मुंबई प्रेस क्लब अपने एक साथी के सम्मान के लिए आहत हुआ! उसकी इस "आहतिक पीड़ा" के प्रति मैं भावुक हूं कि पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी की एक  प्रेस कांफ्रेंस में एक पत्रकार को राहुल गांधी ने झिड़क दिया। उससे कह दिया कि भाजपा का बिल्ला लगाकर आ जाया करो..। बेशक, राहुल ने गलत किया लेकिन अब इसके बाद मैं "आहत मुंबई प्रेस क्लब" से पूरी ईमानदारी से कुछ सवाल जरूर करना चाहूंगा, पहला सवाल यह कि आपकी "आहतिक पीड़ा" इतनी सेलेक्टिव क्यों है? क्या देश भर में, खासकर हिंदी बेल्ट में नित पत्रकारों के अपमान, उनकी गिरफ्तारियों और हत्याओं पर मुंबई प्रेस क्लब आहत नहीं होता है? अगर नहीं होता है तो क्यों?

अभी चंद रोज पहले उत्तर प्रदेश में मंत्री गुलाबो देवी से सवाल करने पर एक पत्रकार को हथकड़ी लगा दी गई। चार साल पहले एक अखबार के पत्रकार के खिलाफ इसलिए मुकदमा पंजीकृत हो गया क्योंकि उसने घास खाते हुए कुछ लोगों की फोटो के साथ खबर छाप दी थी।  
सत्ता पक्ष के विधायकों व छुटभैय्ए नेताओं द्वारा पिटाई तक किए जाने की अनेक घटनाओं पर मुंबई प्रेस क्लब आहत क्यों नहीं होता है? उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में देश का गृह राज्यमंत्री एक पत्रकार को सरेराह सवाल पूछने पर गरियाकर धमका देता है तब "आहत एंजाइम" दिमाग में क्यों नहीं कुलबुलाते हैं?

कोलकाता में एक बड़े चैनल के पत्रकार को  देश का गृहमंत्री सरेआम बेइज्जत कर देता है और आन कैमरा अपने एक सहयोगी से कहता है कि --"ए भाई! इसको ले-जाकर समझा दो...।" ये बड़े पत्रकार मेरे मित्र हैं और इस संदर्भ में मैंने कुछ साथियों से कहा कि कम से कम निंदा तो बनती है लेकिन एक का भी "निंदा रस स्खलित" नहीं हुआ? इस घटना पर भी मुंबई प्रेस क्लब की भावनाएं "आहत रसायन" नहीं छोड़ती हैं। मेरे एक अन्य पुराने साथी प्रख्यात कार्टूनिस्ट मंजुल, जो कि मुंबई से प्रकाशित एक बड़े अखबार में कार्यरत थे, को एक कार्टून बनाने पर सिर पर आसमान उठा लिया गया...तब भी मुंबई प्रेस क्लब को आह-ओह-आऊच नहीं हुआ... लेकिन राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस में एक पत्रकार महोदय की "सत्ता के प्रति लोटनदास" जैसी छटपटाहट पर सवाल क्या कर दिया भावनाएं आहत हो गईं। मुंबई प्रेस क्लब को यह समझने की जरूरत है कि सवाल करने का एकाधिकार आपकी या हम सब पत्रकारों की बपौती नहीं है.... जनप्रतिनिधि और आम जनता भी सवाल कर सकती है...जनता अब पत्रकारों/मीडिया से सवाल करने लगी है..। मुंबई प्रेस क्लब के पदाधिकारियों द्वारा मनन/चिंतन करना चाहिए कि हमने अपने सवाल पूछने के अधिकार जनता को क्यों सौंप दिए? जनता मूर्ख नहीं है वह हमारी/आपकी एक-एक हरकतें परख लेती। हैं इसलिए कोई मुगालता मत पालिए.....। अब यह नहीं चलेगा कि एक जगह "आहत का पाइप लीक" करने लगे दूसरी जगह "एम-सील" लगी हो।

पेरिस स्थित गैर-लाभकारी संगठन रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) द्वारा तैयार नवीनतम प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक भारत को 180 देशों में 150वें स्थान पर रखता है। सूचकांक ने पिछले कुछ वर्षों में भारत में प्रेस की स्वतंत्रता में लगातार गिरावट का संकेत दिया। सूचकांक की प्रकृति के संबंध में भारत और तानाशाही और सत्तावादी सरकारों वाले देशों के बीच की दूरी कम होती जा रही है। सऊदी अरब, उत्तर कोरिया, म्यांमार आदि जैसे देश जो आमतौर पर सूचकांक में सबसे नीचे होते हैं। इन देशों में मीडिया का प्रचार तंत्र या सरकार की एक शाखा के रूप में उपयोग किया जाता है। इन देशों में एक स्वतंत्र प्रेस मौजूद नहीं है जहां मीडिया या तो शासन के स्वामित्व में है या जो लोग शासन के करीब हैं।

यह तेज गिरावट भारत में मीडिया और लोकतंत्र के कामकाज की खतरनाक स्थिति को दर्शाती है। मुंबई प्रेस क्लब के साथियों आपने जो आहत खत/निंदा खत रिलीज किया है..ऐसे खत लगातार उन सभी पत्रकार साथियों के लिए रिलीज होने चाहिए जो सच लिखने/सच कहने/सच दिखाने के कारण या तो मारे गये या जेल चले गये। कुछ माह पहले ही मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार साथी कुमार सौवीर ने केरल के निर्दोष पत्रकार कप्पन की जमानत के लिए अपना घर गिरवी रख दिया और आज वो दिल्ली के एक निजी अस्पताल में इलाज करवा रहे हैं। कहीं से कोई मदद नहीं है।

मुंबई प्रेस क्लब, कलम और आवाज सुविधानुसार नहीं उठनी चाहिए। भारत की बात करें तो 2014 से 2019 के बीच 11 पत्रकार गिरफ्तार किए गए हैं। आईपीआई के मुताबिक, 1997 से लेकर 2020 के बीच इन 23 साल में 1928 पत्रकारों की हत्या हुई है। इसमें भारत में 1997 से 2020 के बीच कुल 74 पत्रकारों की हत्या हुई है। वहीं, भारत में 2014 से 2020 के बीच 27 पत्रकार मारे गए।
उम्मीद करता हूं भविष्य में,  मुंबई प्रेस क्लब सर्वहारा पत्रकार वर्ग के लिए भी आहत हुआ करेगा।

 

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